मनुष्य इसलिए अद्भुत प्राणी है कि उसके तन और मन का कोई निश्चित खाका नहीं खींचा जा सकता। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके कई चेहरे हैं। बार-बार बदलते रहना उसकी नियति है। कहने को तो वह रोज-रोज वर्धमान रहता है, पर उसका शरीर क्षीयमाण ही होता है।
बाहरी सगे-संबंधी, मित्र-शत्रु भी साथ पाकर छोड़ देते हैं, तो अपनी इंद्रियां भी भला पीछे कहाँ रहती हैं! देखते-देखते दंत-पंक्तियां धराशायी हो जाती हैं, कान जवाब दे देते हैं, दृष्टि का दीया मंद पड़ जाता है, वाणी के साथ-साथ हाथ-पांव भी शिथिल हो जाते हैं।
जीवन का सत्य इतना निस्तेज और क्रूर हो सकता है, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। अर्थात् सत्य भी एक अशुभ और कटु वचन की तरह प्रतीत होने लगता है। और जैसे किसी जंगल की गुफा में बैठा कोई सिंह दहाड़ता हो, वैसे ही शरीर की गुफा के भीतर उच्छृंखल मन की दहाड़ सुनाई देती है। जैसे कोई पशु अपने हाथ-पांव के नाखूनों से स्वयं को आहत कर ले, वैसे ही मनुष्य भी अपने हाथों अपना नुकसान कम नहीं करता।
मनुष्य के मायालोक का मायाजाल कम बड़ा नहीं है! उसके विचार और कर्म की भिन्नता उसे सदैव भटकाती रहती है। न उसे देवता बनकर संतोष होता है, न मायावी असुर बनकर उसे शांति मिलती है। उसे जब बाहर और भीतर की एकता का ज्ञान होता है, तभी वह एक संतुलित जीवन जी पाता है।
इस पृथ्वी के सारे सुख और आनंद भीतर-बाहर की एकता, उसकी उचित मात्रा और संतुलन पर ही आधारित हैं। न कम हो न ज्यादा, इस पर भी अमल किया जाए, तो जीवन जीने के फॉर्मूले की तलाश पूरी हो सकती है।
जीवन जीने के फ़ार्मूले साधने का बेहतरीन साधन है राजयोग का अभ्यास जैसा स्वामी विवेकानन्द जी बताते हैं।
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